समावेशी शिक्षा

समावेशी शिक्षा एक शिक्षा प्रणाली है।

इसके अनुसार प्रत्येक बालक को चाहे वह सामान्य हो या विशिष्ट ( विकलांग) को सामान्य रूप से शिक्षा प्राप्ति के अवसर मिलने चाहिए। बिना किसी भेदभाव के एक साथ एक ही विद्यालय में सभी आवश्यक तकनीकों एवं सामग्रियों के साथ उनकी सीखने और सिखाने की आवश्यकता को पूरा किया जाए।

समावेशी शिक्षा विशेषकर विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करता।

समावेशी शिक्षा को मुख्यतः तीन भागों में रखा गया है।

1– शारीरिक या मानसिक विकलांग बालक ( physical disability)

2– अधिगम अशक्कता ( learning disability)

3– अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा निर्धन एवं पिछड़े वर्ग के बच्चे)

समावेशी शिक्षा का उद्देश्य

समावेशी शिक्षा का उद्देश्य किसी भी बालक को चाहे वह शारीरिक रूप से विकलांग हो,मानसिक रूप से कमजोर हो चाहे किसी भी जाति का हो उसे विद्यालय में दाखिला से वंचित ना रखा जाए।

• विशिष्ट बच्चों का पता लगाकर उनकी किसी भी प्रकार की असमर्थता का पता लगाकर उसे दूर करना।

• बच्चों को आत्मनिर्भर बना कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ना।

• विभिन्न आवश्यकता वाले बालकों की आवश्यकता के अनुकूल शारीरिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण का निर्माण करना।

• प्रारंभ से ही समर्थी और असमर्थी बालक को समाज में एक साथ मिलजुल कर रहने के लिए प्रेरित करना,मैत्रीपूर्ण भाव से एक दूसरे के कार्यों में सहयोग करना एवं सामाजिक एकता बनाए रखने में योगदान देना।

समावेशी शिक्षा का महत्व

• समावेशी शिक्षा प्रत्येक बच्चे की व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।

• प्रत्येक प्रकार तथा प्रत्येक श्रेणी के बालकों में आत्मनिर्भरता की भावना का विकास करती है।

• देश की खुशहाली और संगठन के लिए समावेशी शिक्षा आवश्यक है।

विद्यालय में समावेशी शिक्षा प्रदान किए जाने में अध्यापक की भूमिका

• दृष्टि बाधित बालकों या ऐसे बालक जिन्हें देखने में कठिनाई होती है उन्हें बड़े अक्षरों वाले किताब देना।

• श्रवण बाधित बच्चों की समस्याओं को समझना और बोलते समय बच्चों की ओर देखना।

• अधिगम में असमर्थ बालकों को व्यावहारिक रूप से तस्वीरों के माध्यम से पढ़ाना।

• समावेशी शिक्षण एक जटिल कार्य है इसलिए प्रत्येक अध्यापक को अतिरिक्त समय प्रशिक्षण, संसाधन , समुदाय एवं अभिभावक का सहयोग मिलना चाहिए।

प्रश्न – वर्तमान में नि:शक्त बालकों की शिक्षा को कहा जाता है।- समावेशी शिक्षा

प्रश्न – विशिष्ट वर्ग के बालक नहीं होते हैं – सामान्य बालक

विशिष्ट बालक

विशिष्ट बालकप्रत्येक विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सामान्य बालक के अलावा कुछ ऐसे बालक भी आते हैं, जिनकी अपनी कुछ मानसिक विशेषताएं होती हैं, इनमें कुछ बालक मंदबुद्धि कुछ पिछड़े हुए और कुछ शारीरिक 200 वाले बालक और कुछ प्रतिभाशाली बालक होते हैं। इन्हें विशिष्ट बालक या अपवादात्मक बालक कहते हैं।
टेलफोर्ड तथा सावरे ने “विशिष्ट का अर्थ”दुर्बल गुणों से लगाया है।
विशिष्ट बालकों की परिभाषा
हेलमेट एवं फोरनेस के अनुसार- “विशिष्ट ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी शारीरिक, मानसिक बुद्धि, इंद्रियां मांस पेशियों की क्षमताएं अनोखी है।

विशिष्ट बालकों की विशेषताएं
• विशिष्ट बालकों के गुण सामान्य बालकों से अलग होते हैं।
• विशिष्ट बालक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा भावात्मक रूप से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।
• विशिष्ट बालकों की समझने की शक्ति सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं।
• एक विशिष्ट बालक की अधिकतम सामर्थ्य के विकास के लिए उसे विद्यालय की कार्य प्रणाली तथा उसके साथ किए जाने वाले व्यवहार में परिवर्तन की आवश्यकता होती है।
• विशिष्ट बालकों का विकास सामान्य बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता है।
विशिष्ट बालकों की विशिष्ट आवश्यकताएं
• विशिष्ट बालकों की क्या आवश्यकताएं हैं?उनका पता लगाने के लिए हमें इन बालकों का मूल्यांकन करना होता है।अतः विशिष्ट बालकों हेतु विशिष्ट परीक्षा लेने के पश्चात ही हमें उनकी विशिष्टता को ज्ञात करना चाहिए।
• बालकों को वर्गीकृत नहीं करना चाहिए क्योंकि यह एक नकारात्मक पद्धति है। क्योंकि इससे बालकों के बारे में उनकी क्षमताओं के बारे में एक धारणा बन जाती है।
• यदि बालक बाधित होता है,2 शिक्षकों और अभिभावकों को उदासीन नहीं होना चाहिए बल्कि उन बालकों को सुधारने हेतु अनेक प्रयास करने चाहिए।
• बालकों में हीनता वह निराशा की भावना न आए इसके लिए शिक्षकों को प्रयास करना चाहिए।
• विशिष्ट बालकों के लिए खेल की सामग्री अभ्यास पुस्तिका आदि की आवश्यकता होती है।
• विशिष्ट बालकों को प्रेरणा तथा आर्थिक सहायता वाहन भत्ता तथा अधिगम सामग्री आदि देने हेतु आर्थिक सहायता की आवश्यकता है।

विशिष्ट बालकों की शिक्षा
• बालक जिस प्रकार से तथा जिस गति से सीखना चाहता है, उसे उसी प्रकार का अधिगम प्रदान किया जाए।
• विशिष्ट बालकों को शिक्षा उनकी वैयक्तिक विशेषताओं से मिलती-जुलती दें ताकि बालक रुचि लेकर शिक्षा ग्रहण करें।
• विशिष्ट बालक – मानसिक मन्दित,श्रवण बाधित तथा शारीरिक व मानसिक पीड़ा से ग्रस्त बालकों की शिक्षा हेतु विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की गई है।परंतु समस्या तब आती है जब बालक को दिए गए शिक्षण उपकरणों का प्रयोग उनके माता-पिता करने में असमर्थ हो जाते हैं। अतः अभिभावकों को उत्तम प्रयास करना चाहिए, साथ ही शिक्षण संस्थाएं सस्ती व उत्तम शिक्षा प्रदान करें तो बाधित बालक इनका लाभ उठा सकते हैं।

विशिष्ट बालकों के विषय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में कहा गया है। जहां तक संभव हो आंशिक रूप से बाधित बालकों में हाथ/पैर से कार्य करने में असमर्थ बालकों की शिक्षा सामान्य बालकों के साथ ही होगी।
भारत सरकार के द्वारा इन बालकों की शिक्षा मुक्त रखनी चाहिए, पुस्तक वितरण, छात्रवृत्ति की व्यवस्था मुफ्त की जानी चाहिए।
विशिष्ट बालकों को औपचारिक शिक्षा से पूर्व किसी विशिष्ट शिक्षा केंद्र जैसे आंगनवाड़ी आदि में शिक्षा दिलवाने चाहिए।
विशिष्ट बालकों के प्रकार
प्रतिभाशाली बालक (gifted children)
• प्रतिभाशाली बालक सामान्य बालको से सभी बातों में श्रेष्ठतर होते हैं।

• बुद्धि लब्धि 120 से उच्च होती है।
• यह बालक साधारण बालकों से बहुत योग्य होते हैं जो भी कार्य इन्हें प्रदान किया जाता है उसे यह शीघ्र करके दिखा देते हैं।
• यह बालक साधारण बालकों के साथ शिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं तथा कक्षा में अरुचि महसूस करते हैं।
स्किनर एवं हैरिमैन के अनुसार – प्रतिभाशाली शब्द का प्रयोग उन 1% बालकों के लिए किया जाता है जो सबसे अधिक बुद्धिमान होते हैं।
कॉल्सनिक सनी के शब्दों में – वह बालक जो अपने आयु वस्त्र के बच्चों में किसी योग्यता में अधिक हो और समाज के लिए महत्वपूर्ण नया योगदान कर सकें।

प्रतिभाशाली बालकों की पहचान
1- बुद्धि परीक्षण
• शब्दिक तथा अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण।
• व्यक्तिगत तथा सामूहिक बुद्धि परीक्षण।
टरमन के अनुसार – वह बालक जो 140 से अधिक बुद्धि लब्धि का हो‌। वह प्रतिभाशाली बालकों की श्रेणी में आता है।
2- निष्पत्ति परीक्षण – इस परीक्षण के द्वारा बालक को शैक्षिक उपलब्धियों का ज्ञान आसानी से प्राप्त होता है।
3- अभिरुचि परीक्षण – यह परीक्षण यह बताता है कि बालक की रुचि किन-किन कार्यों में है और वह भविष्य में क्या बनना चाहता है।
4- संबंधित बालकों की सूचनाएं – इस प्रकारके परीक्षण में प्रतिभाशाली बालकों का पता लगाने के लिए उनके माता-पिता, अध्यापक,आज पड़ोस के लोगों व उनके मित्रगण से आवश्यक जानकारी ली जाती है।
5- अवलोकन विधियां
6- बालकों के गुणों के आधार पर पहचान।
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएं।
1- शारीरिक विशेषताएं –
• इंद्रिय शक्ति तीव्र
• दांत सामान्य बच्चों से 2 माह पहले निकल जाते हैं।
• शारीरिक दोष बहुत कम।
• स्वास्थ्य सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक स्वस्थ होते हैं।
• शारीरिक रूप से विकसित कद में भारी।
2- सामाजिक विशेषताएं
• मिलनसार, जिम्मेदार, मित्र बड़ी उम्र के, खेल अपनी उम्र के बच्चों के साथ, नेता के गुण, रुचि साहित्य कार्यों में, सृजनात्मक गतिविधियों में सम्मिलित।
टरमन शोध – 500 प्रतिभाशाली बालकों पर सत्य, ईमानदारी, निष्ठा तथा हर परिस्थितियों में समायोजन।
3- संवेगात्मक विशेषताएं
• सामाजिक सुदृढ़, श्रेष्ठ, सदैव प्रसन्न, चरित्र श्रेष्ठ, परिस्थितियों में समायोजन, संवेगात्मक रूप से स्थिर।
4-
बौद्धिक विशेषताएं
• स्पष्ट वादी श्रेष्ठ तथा फुर्तीले, तीव्र अधिगम, तर्क करने की योग्यता अधिक, मानसिक गति सामान्य बालकों से अधिक, कार्यों में श्रेष्ठता।
स्किनर व हैरीमैन – बुद्धि लब्धि (130 से 170 के बीच)
प्रतिभाशाली बालकों की शिक्षा
• विशेष एवं समृद्धि पाठ्यक्रम के अंतर्गत शिक्षा।
• श्रेष्ठ एवं विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा शिक्षण।
• विशिष्ट कक्षाओं या विशेष कक्षाओं की विशेषताएं।
• प्रोत्साहन प्रदान करना।
• विशेष विद्यालयों में शिक्षा।
• समय समय पर विशेष निर्देशन और परामर्श प्रदान करना।
• नेतृत्व का प्रशिक्षण देना।
• पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना ।
धीमी गति से सीखने वाले बालक
मनोवैज्ञानिक क्रिक ने 1962 में सामान्य एवं प्रतिभाशाली बच्चों की पहचान उनके द्वारा सीखे गए कार्यों को सीखने की गति के आधार पर की।यदि किसी सामान्य बच्चे की शैक्षिक उपलब्धि अपने आयु वर्ग से कम है तब उसे भी धीमी गति से सीखने वाला बालक कहा जाएगा।
बच्चों का विकास, समायोजन, आत्मनिर्भरता, योग्यता, सीखने की गति सामान्य बच्चों से कम है।
इनकी विशेषताएं
1- शारीरिक विकास – धीमी गति से सीखने वाले बालकों का शारीरिक तथा मानसिक विकास धीमी गति से होता है। यह साफ कपड़े नहीं पहनते हैं ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास की कमी सामाजिक गुणों का रूप होता है यह प्रायः स्कूल में अनुपस्थित होते हैं।
2- अवधारण शक्ति का आभाव – धीमी गति से सीखने वाले बालकों की स्मरण शक्ति कम होती है इसी के कारण धारण शक्ति भी कम होती है।
3- असुरक्षा की भावना – आत्मविश्वास की भावना का इन बालकों में अभाव होता है इसलिए और सुरक्षा की भावना होती है।
4- अभिव्यक्ति या संप्रेषण क्षमता का अभाव
5- समस्या ग्रस्त।

धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की पहचान।
1- निरीक्षण विधि– छात्र के विभिन्न क्रियाकलापों का निरीक्षण।
2- एकल अध्ययन विधि – इस परीक्षण के द्वारा बच्चे के जन्म से लेकर वर्तमान तक की विभिन्न सूचनाओं को एकत्रित करते हैं।
3- चिकित्सा परीक्षण
4- शैक्षिक परीक्षण
5- व्यक्तित्व परीक्षण –
व्यक्तित्व परीक्षण से बच्चे के सामाजिक मनोवैज्ञानिक तथा संवेगात्मक गुणों का बोध होता है यदि बच्चे के व्यवहार और समायोजन क्षमता में कमी पाई जाती है तो धीमी गति का बालक माना जाता है।
कारण
1- आर्थिक स्थिति या गरीबी।
2- परिवार के सदस्यों का मानसिक स्तर
3- संवेगात्मक घटक
4- व्यक्तिगत घटक
धीमी गति से सीखने वाले बच्चों की शिक्षा
• पाठ्यक्रम का लचीलापन।
• शिक्षक द्वारा बच्चों का अवलोकन
• अभिप्रेरणा प्रदान करना।
• अधिगम के लिए तत्पर करना।
• क्रियात्मक विधियों का प्रयोग।
• व्यवहारिक आयाम के द्वारा शिक्षा।


अपवंचित बालक या वंचित बालक ( deprived children)


निरंतर वैज्ञानिक प्रगति तथा आर्थिक प्रगति के बावजूद हमारे समाज के विभिन्न वर्गों में बहुत ही और समानता है एक वर्ग बहुत ही संपन्न तो दूसरा विपणन है तथा विपन वर्ग के बालक अनेक प्रकार की सामाजिक,आर्थिक व सांस्कृतिक सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं इन सुविधाओं की कमी के कारण इनका विकास सामान्य बालकों की तरह नहीं हो पाता है इसके अलावा भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र, वर्ण लिंग के कारण बालक और अपवंचित रह जाते हैं।
जिस बालक को अपनी प्रगति हेतु अपने समाज में न्यूनतम सुविधाएं भी प्राप्त नहीं है वह सामाजिक दृष्टि से सुविधा से वंचित बालक कहलायेगा।
परिभाषा
वाल मैन के अनुसार – अपवंचन निम्न स्तरीय जीवन दशा अलगाव को घोषित करता है जो कि कुछ व्यक्तियों को उनके समाज के सांस्कृतिक उपलब्धियों में भाग लेने से रोक देता है।
विशेषताएं
1- यह बालक सामाजिक रूप से हीन भावना से ग्रसित होते हैं।
2- इनमें संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है तथा ऐसे बच्चे और सामाजिक कार्यों में लगे होते हैं।
3- इनका बौद्धिक स्तर निम्न होता है।
4- यह बालक विद्यालय के क्रियाकलापों में भाग लेने से सदैव कतराते हैं।
5- इनमें भविष्य की ओर दृष्टि का अभाव होता है।
6- इनमें और सुरक्षा की भावना होती है।
7- यह बालक प्राय अंतर्मुखी, निराशावादी एवं और रूढ़िवादी होते हैं।
8- विभिन्न प्रकार के मंचन से बालक के शैक्षिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
वंचित बालकों के प्रकार
1- संवेगात्मक की दृष्टि से वंचित बालक
2- सामाजिक दृष्टि से वंचित बालक
3- सांस्कृतिक दृष्टि से वंचित
4- आर्थिक दृष्टि से वंचित
5- शैक्षिक दृष्टि से वंचित
अब वंचित बालकों की शिक्षा व्यवस्था
1- वर्ग भेद को समाप्त करके बालकों की शिक्षा का समान अधिकार मिलना चाहिए।
2- इनके साथ प्रेम सहानुभूति तथा सहयोग पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
3- वंचित बालकों के समुचित विकास के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की जानी चाहिए।इसके लिए सरकार द्वारा इन्हें आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए।
4- इनके अभिभावकों को आर्थिक सहायता तथा भी प्रेरणा प्रदान करनी चाहिए जिससे वे अपने बच्चों को विद्यालय भेज सकें।
5- इनकी शैक्षिक व व्यवहारिक समस्याओं का समाधान करना चाहिए।
6- वंचित बालकों को आवश्यकता तथा वातावरण की स्थिति के अनुसार अवकाश प्रदान करना चाहिए।
समस्यात्मक बालक ( problematic child)
समस्यात्मक बालकों से तात्पर्य ऐसे बालकों से है जो परिवार एवं कक्षा वह विद्यालय में भांति-भांति की समस्याएं उत्पन्न करते हैं। ऐसे बच्चों का व्यवहार सामान्य बच्चों से भिन्न होता है।
वैलेंटाइन के अनुसार – समस्यात्मक बच्चे हुए बच्चे हैं जिनके व्यवहार तथा व्यक्तित्व इस सीमा तक और सामान्य होते हैं कि वह घर विद्यालय तथा समाज में समस्याओं के जनक बन जाते हैं।
समस्यात्मक बालकों के अंतर्गत चोरी करने वाले बालक झूठ बोलने वाले, अपने से छोटे बच्चों को परेशान करने वाले बालक आ
होते हैं।
समस्यात्मक बालकों की पहचान
1- निरीक्षण विधि द्वारा
2- साक्षात्कार द्वारा
3- संबंधियों से प्राप्त सूचनाओं से।
4- संचयी अभिलेख के माध्यम से।
5- मनोवैज्ञानिक परीक्षण
समस्यात्मक बच्चों के लक्षण या विशेषताएं
1- पैसे एवं अन्य वस्तुओं की चोरी करना।
2- स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना।
3- शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना।
4- अनुशासन का विरोध करना।
5- धोखा देना।
6- असहयोग की प्रवृति रखना।
7- संदेह करना।
8- बुरा आचरण।
9- अत्यधिक मानसिक दक्षता का होना

1- मानसिक द्वंद से ग्रसित होना।
2- अप्रसन्न या चिड़चिड़ा हो ना।
3- लोगों के विरोध का शिकार होना।
4- सीमा से अधिक कठोर व्यवहार का होना।
समस्यात्मक बालकों के कारण
1- आनुवांशिक कारण– बुद्धि दुर्बलता ,विरासत में मिली दुर्व्यवसन
2- शारीरिक कारण – बहरापन, गंजापन, कम दिखाई
3- सामाजिक कारण – निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति उचित देखरेख का अभाव माता-पिता के बीच टूटते संबंध बड़े सदस्यों की बुरी आदतें आदि।
4- संवेगात्मक कारण – अंगूठा चूसना, बिस्तर गिला करना, चिड़चिड़ापन।
समस्यात्मक बालकों की शिक्षा
• माता-पिता को बच्चों के प्रति प्रेम सहानुभूति तथा सहयोगात्मक व्यवहार करना चाहिए।
• बच्चों को अच्छे कार्य करने के लिए प्रोत्साहन तथा पुरस्कार दिया जाना चाहिए।
• बच्चों को नैतिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
• अध्यापक का व्यवहार मधुर एवं सहयोगात्मक होना चाहिए।
• बच्चों को मनोरंजन के उचित अवसर देना चाहिए।
• किसी भी समस्या का व्यवहारिक मनोवैज्ञानिक हल खोजना चाहिए।

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