परिचय – पृथ्वी तथा जीव मंडलीय पारितंत्र के सौर्यिक विकिरण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल तथा पृथ्वी के अंतर्जात बल के द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है परंतु सौर्यिक विकिरण पृथ्वी की ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। पृथ्वी का अंतरजात बल जहा उच्चावच के निर्माण के साथ मौसम,जलवायु एवं जल प्रवाह, वनस्पति ,मृदा की उत्पत्ति एवं विकास को प्रभावित करता है।वही गुरुत्व बल जल तथा हिम के गतिशीलन तथा स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में बदलने में सहायक होता है।
सौर्यिक ऊर्जा प्रकाश संश्लेषण जैव भू रसायन चक्र के संचालन के साथ वायुमंडलीय परिसंचरण तथा मौसमी घटनाओं को नियंत्रित करने वाला महत्वपूर्ण कारक है।
तापमान किसी भी स्थान की जलवायु दशाओं को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि जलवायु के अन्य घटकों का इससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संबंध होता है।
हम यह भी जानते हैं कि पृथ्वी के तापमान का प्रमुख सौर्यिक विकिरण से प्राप्त ऊर्जा है इसलिए सौर्यिक ऊर्जा पृथ्वी एवं उसके वायुमंडल की विभिन्न मौलिक घटनाओं को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है।
तापमान किसी वस्तु में निहित संवेदनशील ऊष्मा का मापन होता है जो की अणुओं के गतिज ऊर्जा के उसे अनुपात से संबंधित होता है जिसका परिवर्तन ऊष्मा में हो जाता है। ऊष्मा ऊर्जा के एक रूप है जबकि तापमान किसी वस्तु अथवा तत्व की गर्माहट तथा शीतलता का परिचायक है। जिससे मापा जा सकता है। सरल शब्दों में ऊष्मा की मात्रा की माप को तापमान के रूप में व्यक्त किया जाता है।
तापमान के वितरण को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण कारक
1 आपतन कोण
2 अक्षांशीय स्थिति
3 जलीय व स्थलीय सतह का स्वभाव 4 ऊंचाई
5 वायुमंडल के जलवाष्प की मात्रा
6 मेघच्छादन की मात्रा
7 पवन
8 समुद्री जलधारा
9 ढाल की अभीमुखता
10 एल्बिडो
आपतन कोण /अक्षांशीय स्थिति
आपतन कोण सूर्यताप के भीतर को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है इसलिए यह पृथ्वी पर तापमान के वितरण को भी प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। पृथ्वी की सतह तथा सूर्य की किरणों से निर्मित आपतन कोण का किसी स्थान पर प्रति इकाई क्षेत्र में अवशोषित शौर्यिक ऊर्जा की मात्रा से समानुपातिक संबंध होता है।
निम्न अक्षांशों से ऊंचा अक्षांशों तक जाने पर आपतन कोण के मान में कमी आने के कारण पृथ्वी को प्राप्त होने वाले औसत वार्षिक तापमान में भी कमी आती है।यही कारण है कि निम्न अक्षांशीय क्षेत्र में औसत वार्षिक मान सर्वाधिक तथा उच्च अक्षांशीय क्षेत्र में न्यूनतम होता है।
पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव एवं परिक्रमा गति के कारण विषुव के समय विश्वत रेखा पर ग्रीष्म अयनांत के समय कर्क रेखा पर तथा शीत अयनांत के समय मकर रेखा पर अन्य समय की अपेक्षा आपतन कोण सर्वाधिक होने के कारण औसत तापमान में सर्वाधिक होता है।
इस तरह आपतन कोण तापमान के अक्षांशीय वितरण को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है।
तापमान के देशांतरीय वितरण/ समय शिथिलता (तापीय विसंगति कारण) को प्रभावित करने वाले कारक
यदि आपतन कोण तापमान के वितरण को प्रभावित करने वाला एकमात्र कारक होता तब ऐसी स्थिति में समताप रेखाएं अक्षांश रेखाओं के समान अंतर होती जबकि ऐसा नहीं है अर्थात् समताप रेखाओं का पृथ्वी की सतह पर अक्षांश रेखाओं से विचलन हो जाता है जिससे यह स्पष्ट होता है कि आपतन कोण के अतिरिक्त अन्य कारक भी तापमान के वितरण को प्रभावित करते हैं। तापीय विसंगति तथा तापमान के देशांतरीय वितरण के भिन्नता में अन्य कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
स्थलीय व जलीय सतह का स्वभाव
स्थलीय सतह की अपेक्षा जलीय सतह की विशिष्ट ऊष्मा पारदर्शी तथा तापीय चालकता अधिक होने के कारण जलीय सतह की ऊष्मन की दर कम होती है। जबकि वाष्पीकरण के द्वारा जलीय सतह में ऊष्मा के निष्कासन के कारण शीतलन का प्रभाव भी अधिक होता है। इस तरह स्थलीय सतह की अपेक्षा जलीय सतह के ऊष्मन के दर कम होने के साथ शीतलन के प्रभाव से औसत तापमान कम होता है। इस महत्वपूर्ण कारक के तापमान के वितरण पर पड़ने वाले प्रभाव को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्टता से समझा जा सकता है।
1 सागरीय भाग अधिकतर मेघाच्छादित होते हैं। अतः वह स्थलीय भाग की तुलना में कम सूर्यताप प्राप्त करते हैं हालांकि मेघाच्छादित आकाश पार्थिव विकिरण का अवशोषण करके प्रतिलोम विकिरण के द्वारा धरातलीय सतह को दीर्घ तरंग के रूप में पुनः वापस कर देते हैं। जिससे सागरीय क्षेत्र में शीतलन की प्रक्रिया भी मंद गति से होती है।
2 स्थलीय सतह की तुलना में सागरीय सतह का एल्बिडो अधिक होता है।जिससे स्थलीय सतह की तुलना में सागरीय सतह को कम सूर्यताप मिल पाता है।
3 सागरीय भाग में वाष्पीकरण अधिकतम होने से सूर्यताप के अधिकांश मात्रा खर्च हो जाती है। इसलिए सागरीय भाग आवश्यकता से कम सूर्यताप प्राप्त करता है।
4 स्थलीय भाग (स्थल की विशिष्ट ऊष्मा ) (0.19cal/gm/c)
स्थलीय भाग की तुलना में जलीय भाग की विशिष्ट ऊष्मा (1 cal/gm/c) अधिक होती हैं। यही कारण है की जलीय भाग के उतने ही भाग को गर्म होने के लिए उतने ही भाग की अधिक ऊष्मा की आवश्यकता होता है ऐसा इसलिए होता है कि जल का सापेक्षिक घनत्व जल के सापेक्षिक घनत्व से बहुत कम होता है।
5 स्थलीय भाग की तुलना में जलीय भाग अधिक पारदर्शी होते हैं तथा साथ में स्थल की तुलना में जलीय भाग ऊष्मा के अच्छे सुचालक हैं।यही कारण है कि स्थलीय भाग जलीय भाग की तुलना में बहुत जल्दी गर्म तथा जल्दी शीतलन हो जाते हैं।
एल्बिडो
कुल परावर्तीता सौर विकिरण तथा कुल प्राप्त सौर ऊर्जा के अनुपात को ही एल्बिडो कहते हैं। इसे दशमलव अथवा प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है।
सूत्र
एल्बिडो या प्रत्यावर्ती का गुणांक = कुल परावर्तित शौर्यिक ऊर्जा/कुल प्राप्त सौर विकिरण *१००
एल्बिडो का सतह के रंग तथा चिकनेपन से घनिष्ठ संबंध होता है जैसे हल्के रंग की चिकनी सतह की परावर्तीता गुणांक अधिक होता है।
इस प्रकार देखा जाए तो परावर्तीता गुणांक अधिक होने पर ऊष्मा के अवशोषण की दर कम हो जाती है जिससे यह स्पष्ट होता है कि एल्बिडो तथा पृथ्वी के सतह का तापमान के मध्य में व्युत्क्रमानुपाती संबंध होता है।
एल्विडो ^पृथ्वी की सतह का तापमान
वायुमंडल में जलवाष्प की तथा गहरी बादलों की परावर्तित अधिक होती है। इसी कारण ऐसे क्षेत्रों में पृथ्वी की सतह को कम सौर ऊर्जा प्राप्त होने के कारण उसका तापमान भी कम होता है।
Ex इसी तरह ध्रुवीय प्रदेशों में 24 घंटे का दिन होने के बावजूद ग्रीष्म (ग्रीष्म अयनांत) हिमाच्छादित होने के कारण कुल प्राप्त शौर्यिक ऊर्जा का 70 से 90% तक परवर्तीत हो जाता है।जिसके कारण ही ध्रुवीय क्षेत्र भूमध्य रेखा की तुलना में केवल 40% शौर्यिक ऊर्जा प्राप्त होता है।
विभिन्न सतह का एल्बिडो प्रतिशत
सतह। एल्बिडो
1 हिमावरण 70%
2 गहरे बादल 70 से 80 प्रतिशत
3 रेत 20 से 30%
4 घास 14 से 37%
5 शुष्क भूमि 15 से 25%
6 जल 3 से 5 प्रतिशत
7 वन 5 से 10%
ऊंचाई
एक ही अक्षांशीय प्रदेश में स्थलाकृतिक विषमता के कारण भी पृथ्वी के सतह को प्राप्त होने वाले तापमान में भिन्नता होती है।
हम जानते हैं की सतह से ऊंचाई पर जाने पर गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव में कमी के कारण वायु के सघनता में कमी आती है। जिसके कारण सतह से ऊंचाई की ओर जाने पर शौर्यिक विकिरण तथा पार्थिव विकिरण के अवशोषण की दर कम हो जाती है।
यही कारण है कि ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र का औसत तापमान मैदानी क्षेत्र की तुलना में कम होता है।
ऊंचाई वाले क्षेत्र तथा उच्च वायुमंडलीय क्षेत्र उपरोक्त कारणों से ही वायुमंडलीय खिड़की के नाम से जाने जाते हैं।
सागर से दूरी
एक ही अक्षांशीय प्रदेश में स्थित सागरीय क्षेत्र एवं स्थलीय क्षेत्र के तापमान में भिन्नता पाई जाती है सागर क्षेत्र में विशिष्ट ऊष्मा, पारदर्शिता ,तापीय चालकता अधिक होने के साथ सागरीय क्षेत्र में वाष्पीकरण का प्रभाव होने से दैनिक व वार्षिक तापांतर स्थलीय क्षेत्र की तुलना में कम होता है। सागर से स्थल की ओर जाने पर दैनिक व वार्षिक तापांतर बढ़ता जाता है।
यही कारण है कि ग्रीष्म ऋतु के समय सागरीय क्षेत्र का तापमान स्थल की तुलना में कम तथा शीत ऋतु में अधिक होता है।
ढाल की अभीमुखता
ढाल की अभीमुखता के कारण एक ही अक्षांशीय प्रदेश के पर्वतीय ढालों के तापमान में अंतर होता है किसी भी पर्वतीय क्षेत्र के विश्वत रेखीय ढाल को उसके विपरीत ढाल की तुलना में अधिक सूर्यताप प्राप्त होता है यही कारण है कि उत्तरी गोलार्ध में स्थित किसी पर्वत के दक्षिणी ढाल को तथा दक्षिणी गोलार्ध में स्थित किसी पर्वत के उत्तर ढाल को विपरीत ढाल की तुलना में अधिक सूर्यताप प्राप्त होता है।
पश्चिम से पूर्व दिशा में स्थित हिमालय पर्वत के कारण ही शीत ऋतु में भारतीय उपमहाद्वीप पर उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र से आने वाली बर्फीली हवाओं के चपेट में आने से बच जाता है।
भारतीय उपमहाद्वीप के अनुरूप अक्षांशीय क्षेत्र में स्थित अमेरिका में पूर्व से पश्चिम दिशा में विस्तृत कोई पर्वतीय क्षेत्र न होने के कारण अमेरिका उत्तरी बर्फीले ध्रुव हवाओं के चपेट में आ जाता है।
प्रचलित पवन एवं सागरीय धाराएं
पवन एवं समुद्री जल धाराओं के द्वारा विभिन्न अक्षांशों के मध्य ऊष्मा का स्थानांतरण होता है इसीलिए निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर चलने वाली ग्रीष्म पवन तथा गर्म धाराओं के द्वारा उच्च अक्षांशीय प्रदेशों का तापमान में तुलनात्मक रूप से वृद्धि कर दी जाती है इसी तरह उच्च अक्षांशों में निम्न अक्षांशों की तरफ आने वाली ठंडी पवन एवं ठंडी जलधारा के द्वारा निम्न अक्षांशीय प्रदेशों के तापमान में कमी कर दी जाती है।
उदाहरण स्वरूप गल्फस्ट्रीम तथा क्यूरिशियो जलधारा गर्म जलधारा के द्वारा क्रमशः ग्रीनलैंड ,आइसलैंड, पश्चिमी यूरोप, उत्तरी चीन,रसिया आदि क्षेत्र के तापमान को बढ़ा देती है।
इसी तरह लेब्राडोर , क्यूराइल ,पेरू, हैम्बोल्ट ,कैलिफोर्निया आदि ठंडी जलधारा द्वारा प्रभावित क्षेत्र के तापमान में कमी कर दी जाती है।
पवन के संदर्भ में यदि उपरोक्त तथ्य का विश्लेषण किया जाए तो ध्रुवीय पूर्वी हवाओं के द्वारा जहां अपने से निम्न अक्षांशीय क्षेत्र के तापमान में कमी कर दी जाती है। वहां पछुआ पवन द्वारा अपने से उच्च अक्षांशीय क्षेत्र के तापमान में वृद्धि कर दी जाती है।
मेघच्छादंता की मात्रा
मेघाच्छादंता की मात्रा का तापमान से व्युत्क्रमानुपातिक संबंध होता है क्योंकि गहरे बादलों का एल्विडो अत्यधिक होता है। यही कारण है की विश्वत रेखीय क्षेत्र में बादलों की अधिकता के कारण अधिकतम सूर्यताप प्राप्त करने के बावजूद मकर कर्क रेखा की तुलना में सतह का तापमान कम होता है।
उल्लेखनीय है कि अयनवृतीय क्षेत्रों में प्रति चक्रवातीय दशाओं वाला क्षेत्र होने के कारण वायुमंडल में स्थिरता आ जाती है।
वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा
जलवाष्प की मात्रा का पृथ्वी की सतह से एक विशिष्ट संबंध होता है क्योंकि जलवाष्प की मात्रा अधिक होने पर शौर्यिक विकिरण केऊष्मन की दर में जहां कमी आती है वहीं जलवायु के द्वारा पार्थिव विकिरण का अवशोषण किए जाने के कारण शीतलन की दर भी कम हो जाती है।ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि जलवाष्प शौर्यिक विकिरण को जल परावर्तित कर देती है वहीं पार्थिव विकिरण का अवशोषण के साथ सतह की ओर प्रतिलोम विकिरण अथवा आकाशी विकिरण भी करती है।
जलवाष्प की मात्रा का दिन के समय ऊष्मन तथा रात्रि के समय शीतलन की प्रक्रिया से विपरित संबंध होने के कारण दैनिक तापमान पर प्रभाव पड़ता है।
यही कारण है कि आर्द्र जलवायु प्रदेशों में दैनिक तापांतर शुष्क जलवायु प्रदेश की तुलना में कम होता है तथा तट से दूरी बढ़ने के साथ दैनिक तापांतर में भी वृद्धि होती जाती है।इसलिए जलवाष्प को दैनिक तापांतर को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा कारक है।
तापमान पर आधारित महत्वपूर्ण संकल्पना
तापीय विसंगति
किसी अक्षांश की औसत तापमान तथा उस अक्षांश पर स्थित विभिन्न स्थानों के औसत तापमान में विद्यमान अंतर को तापीय विसंगति कहते हैं।
जैसे यदि 30 डिग्री अक्षांश का वार्षिक औसत तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड है तथा इस अक्षांश पर स्थित स्थान A का औसत तापमान 30 डिग्री सेंटीग्रेड है तो इसमें तापीय विसंगति 10 डिग्री होती है।
समान तापीय विसंगति को सम विषमता तापमान तथा समान तापीय विसंगति वाले स्थानों को मिलने वाली रेखा को सम विसंगत रेखा कहते हैं।
समान तापीय विसंगति को प्रदर्शित करने वाले मानचित्र को सम विसंगत मानचित्र कहते हैं।
जब स्थान विशेष का तापमान उसके अक्षांश की औसत तापमान से अधिक होता है तो धनात्मक तापीय विसंगति होता है तथा इसके विपरीत स्थिति होने पर ऋणआत्मक तापीय विसंगति होती हैं।
उत्तरी गोलार्ध में स्थलीय भागों की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्ध का अपेक्षा तापीय विसंगति ज्यादा होती है।
जनवरी मास के सम विसंगत मानचित्र पर महासागरों पर धनात्मक तथा महाद्वीपों पर ऋणआत्मक विसंगति होती है।
सर्वाधिक धनात्मक तापीय विसंगति मध्य अक्षांशों में स्थित महासागरों के भाग तथा संबंधित महाद्वीपों के पश्चिमी तटीय भागों में होती है।
सामान्य ताप ह्रास दर
पृथ्वी की सतह से ऊंचाई में वृद्धि के साथ तापमान में कमी की दर सामान्य ताप ह्रास दर कहते हैं।
जब यह कमी 6.5 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति 1 किलोमीटर (3.6 डिग्री फारेनहाइट प्रति 100 फीट ) की दर से आए तो इसे सामान्य ताप ह्रास दर कहते हैं इसका परिकलन धरातलीय सतह के औसत तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तथा 11 किलोमीटर की ऊंचाई तक औसतन (-59 डिग्री सेंटीग्रेड) तापमान के आधार पर किया जाता है।
इस तरह औसत तापमान सामान्य ताप ह्रास दर 15 डिग्री सेंटीग्रेड +( -59 डिग्री सेंटीग्रेड) = 74/11
6.7’C (6.5’C) NLR
हम जानते हैं कि शांत वायुमंडल में सतह से ऊंचाई की ओर जाने पर वायु की सघनता में कमी आने पर शौर्यिक विकिरण तथा पार्थिव विकिरण की अवशोषण की दर कम हो जाती है इसीलिए तापमान में यह गिरावट आती है।
सामान्य ताप ह्रास दर एक आदर्श परिघटना है जो की तापमान के अक्षांशीय क्षैतिज पतन दर 1000 गुना अधिक है। पर्यावरण पतन दर जोकी वास्तविक पटन दर है, में स्थानिक व कालिक परिवर्तन होता रहता है। सामान्य ताप ह्रास दर की घटना क्षोभ मंडल तक ही सीमित होती है। एडियाबेटिक (रुद्धोष्म) शीतलन एवं ऊष्मन की प्रक्रिया द्वारा जब वायुमंडल के तापमान में वृद्धि अथवा कमी होती है तो उसे एडियाबेटिक (रुद्धोष्म), ताप वृद्धि अथवा तथा ताप ह्रास कहते हैं।
उल्लेखनीय हैं कि जलवायु के आरोहण के द्वारा तापमान में कमी तथा अवरोहण के द्वारा तापमान में वृद्धि होती है तो उसे रुद्धोष्म ताप ह्रास अथवा वृद्धि कहते हैं।
शुष्क वायु के आरोहण के द्वारा तापमान में आने वाली कमी को शुष्क रुद्धोष्म ताप ह्रास दर कहते हैं। जोकि लगभग 10 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति 1000 मी या 5 डिग्री फारेनहाइट प्रति 1000 फिट होता है।इसी तरह शुष्क वायु के आरोहन के समय 10 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति 1000 मीटर की दर से वृद्धि होती है जिसे शुष्क एडियावेटिक ताप वृद्धि कहते हैं।
जब आद्र वायु के आरोहण के द्वारा एक निश्चित ऊंचाई पर उसके संतृप्त होने के बाद संघनन की प्रक्रिया द्वारा गुप्त ऊष्मा के संवेदनशील ऊष्मा में परिवर्तित होने के कारण तापमान में वृद्धि होती है। तब ऐसी स्थिति में ऊंचाई में वृद्धि के साथ तापमान में कमी की दर शुष्क ताप ह्रास दर से कम हो जाती है।जोकि लगभग 5 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति 1 किलोमीटर होती है उसे आर्द्र एडियाबेटिक ताप ह्रास दर कहते हैं।ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जहां वायु के आरोहण के कारण तापमान में कमी आती है वही संघनन के द्वारा तापमान में वृद्धि भी होती है क्योंकि संघनन के द्वारा ऊष्मा के उत्सर्जन की दर निश्चित नहीं होती है इसलिए संतृप्त अथवा आद्र रुद्धोष्म ताप ह्रास दर परिवर्तन होता है।
किसी भी वातावरण के तापमान में कमी अथवा पर्यावरणीय परिवर्तनशील होता है जब वायु के आरोहण की प्रक्रिया वायुमंडल में होती है तब ऐसी स्थिति में वायुमंडलीय अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती है जो की अनेक मौसमी घटनाओं को जन्म देती है।इसके विपरीत वायु के आरोहण की स्थिति में वही मंडलीय स्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती है जिसके कारण वायुमंडल मौसम घटनाओं से रहित अर्थात प्रति चक्रवाती दशा वाला हो जाता है।
निष्कर्षत तापमान के ऊर्ध्वाधर वितरण में विभिन्नता होने की स्थिति में वायुमंडलीय स्थिरता व अस्थिरता के कारण मौसम परिवर्तन होता है।
तापीय प्रतिलोमन
सामान्य नियम के विपरीत जब सत्ता से ऊंचाई की तरफ जाने पर तापमान में कमी की तरह वृद्धि होती है तब ऐसी स्थिति को तापीय विलोमता कहा जाता है।यह एक अल्पकालीन क्षोभमंडल में घटित होने वाली प्रक्रिया है जो की ठंडी वायु के ऊपर गर्म वायु के परतों के स्थापित होने पर घटित होती है हालांकि इस तरह की वायुमंडलीय स्थिति क्षोभमंडल (क्षोभसीमा) तथा निम्नवर्ती समताप मंडल के मध्य भी दिखाई पड़ती है। यहां पर यह एक सामान्य दशा है। इसी तरह से मध्य मंडल तथा ताप मंडल के मध्य भी तापीय विलोमता की स्थाई दशा पाई जाती है। तापीय विलोमता की स्थिति सतह के समीप भी बनती है। ऊपरी वायुमंडल में ही बनती है। सतह के समीप बनने वाले तापीय विलोमता की स्थिति को विकिरण विलोमता ,वायु अपवाह विलोमता तथा अभिवहन विलोमता के नाम से जाना जाता है। इसी तरह ऊपरी वायुमंडल में वाताग्रीय, संवहनीय तथा वायु के अवरोहण के द्वारा तापीय विलोमता की स्थिति उत्पन्न होती है।
वायुमंडल में ठंडी वायु परतों के ऊपर गर्म वायु के परतों के स्थापित होने की स्थिति को तापीय विलोमता कहते हैं।ऐसी स्थिति विकिरण, वायु अपवाह, अभिवहन, वाताग्र,संवहन तथा वायु के आरोहन के द्वारा उत्पन्न होती है।
विकिरण विलोमता
जब सतह पर वायु के ऊपर की परतों की अपेक्षा पार्थिव विकिरण दर अधिक होता है तब ऐसी स्थिति में सतह के समीप वायु के परतों का तापमान ऊपरी वायु के परतों के तापमान से कम हो जाता है तब ऐसी स्थिति में विकिरण विलोमता की स्थिति उत्पन्न होती है। अर्थात सतह के समीप पार्थिव विकिरण दर अधिक होने के कारण सतह के आस पास का तापमान ऊपर स्थित वायु के परतों के तापमान से कम हो जाता है जिससे यह स्थिति उत्पन्न होती है।
औसत दशाएं
1 जाड़े की लंबी रात्रि
2 आकाश स्वच्छ तथा बदल रहीत या अत्यधिक उच्च बादल की स्थिति 3धरातल के पास शुष्क पवन
4 वायुमंडल शांत तथा स्थित
5 हिम से आच्छादित धरातल
6 विकिरण प्रतिलोमन की घटना स्थिर वायुमंडल दशा में घटित होती है इसलिए इसे स्थिर प्रतिलोमन अथवा अप्रवाही प्रतिलोमन भी कहा जाता है।
7 निम्न अक्षांशों में इस तरह का प्रतिलोमन केवल शीतकालीन रात्रियों में होता है तथा उच्च अक्षांशों की ओर विकिरण प्रतिलोमन की अवधि बढ़ती जाती है। ध्रुवीय क्षेत्र की यह तो एक सामान्य विशेषता है।
8 विकिरण प्रतिलोमन के कारण डायबिटिक कुलिंग प्रक्रिया के द्वारा संघनन की स्थिति में कोहरा बनता है।
अभीवहन प्रतिलोमन या क्षैतिज प्रवाही प्रतिलोमन
जब ठंडी सतह के ऊपर गर्म पवन अथवा गर्म समुद्री जलधारा के प्रभाव से तापीय विलोमता की स्थिति बनती है तो उसे अभीवहन विलोमता कहा जाता है।
हालांकि ठंडी जलधारा तथा ठंडी वायु के उष्ण क्षेत्र में प्रवेश करने पर ठंडी वायु के नीचे तथा गर्मी के ऊपर स्थापित होने की स्थिति में भी अभिवहन विलोमता की स्थिति उत्पन्न होती है।
वायु अपवाह विलोमता अथवा घटिय प्रतिलोमन
जब पर्वत के शिखर में स्थित भारी ठंडी वायु घाटी में प्रवेश कर घाटी के गर्म वायु को ऊपर की ओर विस्थापित कर देती है तो ऐसी स्थिति ठंडी वायु के परतों के ऊपर गम वायु के परतों की स्थापित होने की स्थिति में घटिय प्रतिलोम की स्थिति होती है।इस प्रतिलोमन में ठंडी वायु का अधीमुखी संचरण तथा गर्म वायु उपरिमुखी संचरण होता है।
इस तरह के पर्वतीय क्षेत्रों में शीत ऋतु में घाटियों में भारी वायु के स्थापित होने की स्थिति में डायबिटिक कुलिंग के कारण संघनन होने से कोहरा तथा पाला पड़ता है जबकि ऊंचाई वाले क्षेत्र सुहाने होते हैं। मध्य तथा उच्च अक्षांशीय पर्वतीय क्षेत्र में इसी कारण शीत ऋतु में घटिया वीरान हो जाती है जबकि ऊंचाई वाले क्षेत्र आबाद हो जाते हैं। घटिया प्रतिलोमन की दशा विकिरण तथा अभीवहन के कारण घटित होती है।