मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Solum शब्द से हुई जिसका अर्थ है फर्श
भारतीय मृदा का वर्गीकरण
भारतीय मृदा के वर्गीकरण का सर्वप्रथम वैज्ञानिक प्रयास वोयलकार द्वारा किया गया। जिसमें मृदा को चार भागों में विभाजित किया गया जलोढ जालोद रेंगड़ लाल व लेटराइट मृदा 1898 में लीदर द्वारा इसमें संशोधन किया गया।
मृदा के अध्ययन तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे तुलनात्मक बनाने के प्रयासों के अंतर्गत ICAR ने भारतीय मृदा को उनकी प्रकृति और उनके गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है यह वर्गीकरण USA के कृषि विभाग USDA की मृदा वर्गीकरण पद्धति पर आधारित है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1986 में देश के 8 प्रमुख तथा 27 गौण प्रकार की मिट्टीओ की पहचान की है।
उत्पत्ति रंग संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर इन भारत की मिट्टियों को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया है।
जलोढ़ मृदाएं
लाल और पीली मृदाएं
काली मृदाए
लेटराइट मृदाएं
शुष्क मृदाएं
लवण मृदाएं
पिटमैंट मृदाएं
वन मृदाएं पर्वतीय मृदा
ICAR द्वारा USDA मृदा वर्गीकरण के अनुसार भारत की मिट्टियों का वर्गीकरण
क्रम संख्या मिट्टी प्रतिशत विस्तार
इनसेप्टिसोल्स 3974 गंगा सिंधु के मैदान के बांगड़ तथा ब्रह्मपुत्र घाटी की मृदाए
एंटिसोल से 28.5 राजस्थान के रेगिस्तान के मृदाएं नवीन जलोढ खादर मृदाएं
एल्फिसोल्स सेल्फिश 13.55 कुछ लाल और लेटराइट मृदाएं
वर्टिसोल्स 8.52 दक्षिण भारत की काली मिट्टी
एरिडोसोल्स शुष्क क्षेत्र की मृदा राजस्थान गुजरात हरियाणा एवं पंजाब में
अल्टीसोल्स केरल तमिलनाडु एवं उड़ीसा में
मालीसोल्स उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र हिमाचल प्रदेश और उत्तर पूर्व हिमालय के जंगलों की मृदाएं
अन्य अन्य क्षेत्रों में
जलोढ़ मृदाए
जलोढ़ मिट्टियां विशाल मैदान पंजाब से असम तक नर्मदा तापी महानदी गोदावरी कृष्णा तथा कावेरी आदि प्रायद्वीपीय नदी घाटियों एवं तटवर्ती भागों में लगभग 19 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है पश्चिम से पूर्व जाने पर बारीक कण
यह भारत की सर्वाधिक क्षेत्र में विस्तृत मिट्टी है उपनाम कांप दोमट कछारी
ये मिट्टियां नदियों द्वारा अपरदित पदार्थों के निक्षेप से निर्मित है। यह अपक्षेत्रीय प्रकार की मृदा है।
ये हल्की भूरे से राख जैसे भूरे रंग की है तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की है।
बाढ़ के मैदान द्वारा प्रतिवर्ष बिछायी जाने वाली नई कांप को स्थानीय रूप से खादर कहा जाता है तथा पुरानी कांप जलोधक जो अपरदन से प्रभावित होती है बांगर कहलाती है।बांगर भूमि में कंकड़ तथा अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट की ग्रंथियां पाई जाती है जिन्हें कंकड़ कहते हैं।
यह मृदाओ में पोटाश व चुना प्रचुर मात्रा में मिलता है।
फास्फोरस नाइट्रोजन और जीवाश्म का अभाव होता है।
यह मिट्टी धान गेहूं गन्ना तिलहन आदि की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
लाल पीली मृदा
लाल पीली मिट्टी का विस्तार देश के लगभग 61 लाख वर्ग किलोमीटर भू क्षेत्र पर है। इस प्रकार यह मृदा देश का दूसरा विशालतम वर्ग है।
ये तमिलनाडु सर्वाधिक विस्तार कर्नाटक महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश छत्तीसगढ़ उड़ीसा तथा झारखंड के व्यापक क्षेत्र में तथा पश्चिम बंगाल दक्षिण उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ क्षेत्र में पाई जाती है।
इनका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण है तथा जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई देती है।
ये अत्यधिक निक्षलित मिट्टी है।
इस प्रकार की मिट्टी में लोहे एल्युमिनियम तथा चूने का अंश अधिक होता है किंतु जीवाश्म पदार्थ नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी पाई जाती है।
सिंचाई द्वारा इस मिट्टी में तंबाकू बाजार आदि की खेती की जाती है।
काली मृदाए
काली मिट्टी को महाराष्ट्र में स्थानीय रूप में रेंगूर अन्य क्षेत्रों में कपासी मिट्टी तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उष्णकटिबंधीय चरनोजम कहा जाता है।
इस मिट्टी के विस्तार लगभग 546 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर है।
इनका विकास महाराष्ट्र सर्वाधिक पश्चिम मध्य प्रदेश गुजरात राजस्थान आंध्र प्रदेश कर्नाटक तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश पर हाड़ौती मालवा ढक्कन लावा बेसाल्ट के अपक्षय से हुआ है यह स्थानीय क्षेत्रीय मृदा है।
इनके संरचना सामान्य चीकामय होती है।
यह मिट्टी सामान्यतः टैटेनीफेरस लोहांश से समृद्ध से होती है।
इनमें नाइट्रोजन फास्फोरस तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है ।
इसमें जल धारण क्षमता अधिक होती है।
ये जल से संतृप्त होने पर मृदु तथा चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें गहरी दरारें उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण इस मृदा को स्वतः जुदाई वाली मृदा की उपमा प्रदान की गई है।
इनमें उर्वरता अधिक होती है अतएव ये जड़दार फसलों जैसे कपास गन्ना मूंगफली सोयाबीन तेल आदि की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
लेटराइट मृदाए
लेटराइट मिट्टी देश के 37% भू क्षेत्र तक विस्तृत है। देश में इस प्रकार की मृदा का सर्वाधिक क्षेत्रफल क्रमशः केरल महाराष्ट्रवह असम में पाया जाता है।
ये मिट्टी सहयाद्री पूर्वी घाट राजमहल पहाड़ियों सतपुड़ा विंध्य असम तथा मेघालय की पहाड़ियों की ऊपरी भागों में मिलती है।
लैटेराइट मिट्टियों का स्वरूप भींगने पर दही के समान लसालसा कोमल व सूखने पर ईंट के समान कठोर हो जाता है।
ये उष्णकटिबंधी की प्रारूपिक मिट्टियों हैं जहां मौसमी वर्षा होती है अर्थात उच्च क्षेत्रों में उच्च तापमान व उच्च वर्षा वाले उष्णाद्र भागों में यह मृदा उत्पन्न होती है।
यह बहुत ही अपक्षलित मृदा है बारंबार भीगने पर तथा सूखने से इनका सिलिकामय पदार्थ निक्षलित हो जाता है।
इनका रंग लोहे की ऑक्साइड की उपस्थिति उपस्थिति के कारण लाल होता है।
ये मिट्टियां सामान्यतः लौह तथा एल्यूमिनियम से समृद्ध होती है।
इनमें नाइट्रोजन पोटाश चुनाव तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है।
इनमें चाय कहवा सिनकोना तथा काजू आदि विविध प्रकार की बागान खेती सफलतापूर्वक की जाती है।
मरुस्थलीय मृदाए
इसे शुष्क मृदा भी कहते हैं।
मरुस्थलीय मिट्टियों का विस्तार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर राजस्थान सौराष्ट्र कच्छ हरियाणा तथा दक्षिण पंजाब के क्षेत्र में है।
ये मिट्टियां बलुई से बजरीयुक्त होती है इनमें जैविक पदार्थ तथा नाइट्रोजन की कमी पाई जाती है।
इनमें घुलनशील लवणों तथा फास्फोरस का उच्च प्रतिशत मिलता है किंतु नमी की मात्रा कम होती है।
सिंचाई द्वारा इनमें ज्वार बाजरा मोटे अनाज व सरसों आदि उगाए जाते हैं।
पर्वतीय मृदाए
इसे वनीय मृदा भी कहा जाता है। ये लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर विस्तृत है।
ये नवीन व अविकसित मृदा है जो कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में फैली हुई है।
इनमें पोटाश चुना व फास्फोरस का आधार होता है पर जीवाश्म प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।
पर्वतीय ढालों पर नाशपति तथा आलूचा आदि फल वृक्ष पाए जाते हैं।
सामान्यतः इस प्रकार की मृदाए अम्लीय स्वभाव की होती है।
पीट तथा दलदलीय मृदाए
पीट मृदा नम जलवायु में बनती है।सड़ी वनस्पतियों से बनी पीट मिट्टियों का निर्माण केरल तथा तमिलनाडु के आर्द्र प्रदेशो में हुआ है।
इन मृदाओं में जैविक पदार्थ व घुलनशील नमक की मात्रा अधिक होती है ।
दलदली मृदाएं तटीय उड़ीसा सुंदरवन उत्तर बिहार के मध्यवर्ती भागों तथा तटीय तमिलनाडु में पाई जाती है।
निचले क्षेत्रों में जल क्रांति तथा अवायु दशा में इस मृदा का निर्माण होता है।
ये अम्लीय स्वभाव की मृदा होती है। इस प्रकार की मृदा में मैंग्रोव वनस्पतियां पाई जाती है।
लवणीय तथा क्षारीय मृदा
ये मिट्टियां पंजाब हरियाणा राजस्थान बिहार उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र के शुष्क भागों में 17 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर विस्तृत है। कोशिकार्षण क्रिया से धरातल पर लवणों की परत सोडियम कैल्शियम तथा मैग्नीशियम आदि के सल्फेट तथा कार्बोनेट बन जाते हैं।
ऐसी मिट्टियां पंजाब तथा उत्तर प्रदेश की नहरसिंचित तथा उच्च जल स्तर वाले क्षेत्रों जैसे चंबल नदी क्षेत्र में उत्पन्न हो गई है।
ये अनुर्वर मिट्टियां रेह कल्लर ऊसर थूर चोपर आदि अनेक स्थानीय नामो से पुकारी जाती है।
इन मिट्टियों का समाधान उचित अफवाह चुना रॉक फास्फेट जिप्सम पाइराइट्स के प्रयोग द्वारा तथा नाइट्रोजनी दलहनी फैसले उगाकर किया जा सकता है।
भारतीय मृदा की समस्याएं
मृदा अपरदन की समस्या
सेम की समस्या
क्षारीय भूमि की समस्या
बंजर भूमि की समस्या
मरुभूमि विस्तार की समस्या
मृदा अपक्षय
मृदा संरक्षण
मृदा के निर्माण में अत्यधिक लंबा समय लगता है अतः मृदा का संरक्षण करना आवश्यक है।
मृदा के प्रमुख समस्याएं अपरदन एवं निम्नीकरण है जो प्राकृतिक कारण एवं मानव गतिविधियों के कारण होता है।
उदाहरण वर्षा दोहन भूस्खलन वनोन्मूलन अत्यधिक सिंचाई तथा अतिचारण इत्यादि।
अतः मृदा संरक्षण के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं
मल्च बनाना
इस पद्धति के अंतर्गत भूमि को जैव पदार्थ से ढका जाता है जैसे घास फूस आदि
इससे मृदा में नमी बनी रहती है तथा मृदा का अपरदन कम होता है।
समोच्च रेखीय जुताई
पर्वतों के ढाल वाले क्षेत्रों में समोच्च रेखा के समांतर जुताई की जाती है। इससे जल के बलव के कारण होने वाली मृदा अपरदन कम होता है।
वेदिका कृषि
इस पद्धति के अंतर्गत परतों की ढाल पर सीढ़ीनुमा कृषि की जाती है।
इससे पर्वतीय क्षेत्र में कृषि भूमि प्राप्त होती है तथा मृदा संरक्षण होता है।
अंतरफसलीकरण
इस पद्धति के अंतर्गत एकांतर कतारों में विभिन्न प्रकार की फैसले उगाई जाती है। यह पद्धति मृदा की गुणवत्ता को बनाए रखती है तथा मृदा संरक्षण में सहायक होती है।
पट्टीदार कृषि
इस पद्धति के अंतर्गत फसल के बीच में घास की पत्तियां विकसित की जाती है।
यह पद्धति उन क्षेत्रों में उपयोग में ली जाती है। जहां पवनों की गति बहुत तीव्र हो जाती है।
इससे पवनो द्वारा होने वाला मृदा अपरदन कम होता है।
यह पद्धति मुख्य रूप से शुष्क एवं तटवर्ती क्षेत्रों में उपयोग ली जाती है।
रक्षक मेंखलाएं
इसके अंतर्गत वृक्षों की एक कतार विकसित की जाती है। इससे पवनों की गति के कारण होने वाली मृदा अपरदन कम होता है